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देश खुद रहा है, रुकावट के लिए खेद है


(तस्वीर--गूगल)


सुबह-सुबह टहलने निकला। पड़ोसी राज्यों में जली पराली की ख़ुशबू ने तर करना शुरू ही किया कि अचानक नज़र गई एक कुत्ते पर।(कुत्ता प्रेमी मुझे माफ़ करें, मैं कुत्ते को कुत्ता बुला रहा हूँ, उसका अंग्रेज़ी नाम नहीं जानता।) राजपथ (पिछले पोस्ट में राजपथ बता चुका हूँ कि अपने घर के बाहर की रोड को मैं राजपथ ही कहता हूँ) पर नया कुत्ता!!!! मैं थोड़ा चौंका। उसके गले में नागपुर वाले संतरे के रंग की बेल्ट भी बंधी है। मैं और चौंका। कमाल है, आज तो सुबह-सुबह से ही। मेरी हैरानी क़ुतुब मीनार की सबसे ऊपर वाली मीनार पर तब पहुँची जब देखा कि कुत्ता अपने पैरों के नाखून से ज़मीन खोद रहा है। अचरज में मुँह से निकला—ऐ ऐ ऐ भाई, मत खोद। मीडिया वाले सवाल पूछ-पूछकर तेरे को मार देंगे। तू इतना प्रिवलेज्ड़ तो है नहीं कि किसी की सिफ़ारिश लगाकर प्रेस कॉन्फ़्रेंस से बच जाएगा। और तो और कुछ निकल आया तो तुझे अंदाज़ा नहीं, दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर व्यस्त बुलडोज़रों का काम डिले हो जाएगा। सब यहीं मुँह मारने लगेंगे। और देखते ही देखते बुलडोज़र वाले भाई लोग पूरा राजपथ खोद देंगे। उनका क्या जाता है। उनको तो एक तरह के नाम चाहिए। लगा देंगे बोर्ड—खुदाई चल रही है, रुकावट के लिए खेद है। खेद का ख़ामियाज़ा तो तू नहीं भुगतेगा। तू तो उछल कर पार हो जाएगा, मरेंगे हमारे जैसे लोग। जिनकी हर चाल पर नज़र रखी जाती है, छलाँग तो बहुत बड़ी बात हो गई। आड़े-तिरछे, ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ होकर पार करते रहेंगे। उसमें टाँग टूटे, हाथ टूटे या सिर फूटे तो रिस्क हमारा। महंगाई से लेकर देश में हिन्दू ख़तरे में है कि सारा रिस्क हमारा ही तो है। किसी का क्या जाता है—झोला उठाएँगे और चल देंगे राजपक्षे की तरह। हमें दवा-दारू कराना पड़ेगा। मुफ़्त की वैक्सीन आठ सौ और बारह सौ रुपए में लगवाई है, इसका तो न जाने कितना लगेगा। वैसे भी वो ज़िम्मेदारी लेने से बच जाएंगे, कहेंगे हमने तो पहले से ही बोर्ड लगा रखा है। फिर करते रहो, दीया बाती। बजाते रहो थाल और थपोडी।

मेरे हुर्रररर…हार्रर्रर्र…करने के बावजूद कुत्ता टस से मस नहीं हुआ। उल्टा मेरे ऊपर गुर्राया। मैं समझ गया मालिक का परम भक्त है। मालिक ने कहा है तो काम तो पूरा करके ही मानेगा। वैसे भी संतरे के रंग की बेल्ट का पट्टा बाँधे कुत्ता भला मेरी बात क्यों मानता। मैं उसका कौन? न तो खाना खिलाया कभी, न दूध पिलाया, न साथ बिस्तर पर सुलाया कभी। कुत्ता है भाई साब, कोई टेलीप्रॉंप्टर नहीं कि धोखा देकर उड़ जाएगा और होश उड़ा जाएगा। वफ़ादार है। वो भी चौबीस कैरेट।

हाँ, ‘राजपथ पर रुकावट के लिए खेद’ का असर दोनों के लिए लागू तो होगा, पर मालिक यह सोचकर खुश रहेगा है कि चलो, जो भी हो। है तो अपना ही कुत्ता न। थोड़ी दिक़्क़त सह लेंगे और क्या। काम तो महान कर रहा है। पता नहीं चलता, कुत्ता कब मालिक बन जाता है और मालिक कुत्ता। यह भ्रम का दौर पिछले कुछ वर्षों (आप अपने हिसाब से जोड़कर लगा लें) में ज़्यादा बढ़ा है। इसी भ्रम का नतीजा ही है कि कुत्ता खुदाई कर रहा है और मैं देख रहा हूँ। मैं क्या, ज़रूरत पड़ने पर पूरा देश देखेगा। और हो क्यों न। कुत्ता खोदकर कुछ ऐसा निकाल ही दे जिससे दुनिया बदल जाए तो। अगर यही पता चल गया कि न्यूटन ने जो गुरुत्वाकर्षण का नियम और गति के सिद्धान्त की खोज की है, उसके बारे में हमारे यहाँ बहुत पहले किसी ने बता दिया था और ज़मीन में गाड़ दिया था। दो मिनट में भाई लोग न्यूटन को चोर ठहरा देंगे। क़ब्र से उठा लाएँगे। और फिर शुरू हो जाएगी नेहरू सर की फ़ज़ीहत। ये काम तो नेहरू सर को करना चाहिए था। कंगना ठीक ही तो कहती है, असल में देश तो 2014 में ही आज़ाद हुआ। अगर पहले हुआ तो नेहरु सर को क्यों नहीं पता चला कि राजपथ के नीचे हिन्दुओं की विरासत है, मुस्लिम शासकों ने उसपर सड़क बनवा दी। जो लोग यह मानने से इनकार करते हैं कि हम विश्व गुरू नहीं बन सकते, उनसे मुझे बहुत चिढ़ है, वो जलनखोर हैं तरक़्क़ी के। भाई साब, हम हैं उसी राह पर। बस राह में बोर्ड लगा है—देश खुद रहा है, रुकावट के लिए खेद है।

खुदाई के इस ऐतिहासिक क्षण पर मैंने और फ़ोकस किया। कुत्ते को गौर से देखने लगा। वो भी बिना मेरी परवाह किए तसल्ली बख्श खोदता रहा अपने खुरों से। सहसा मुझे अपने पर गर्व महसूस होने लगा। लगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं गलती से किसी इतिहास के ऐसे क्षण का साक्षी होने जा रहा हूँ जिसको आज से मीडिया सेल के बड़े-बड़े इतिहासकार व्हाट्सअप पर फ़ॉरवर्ड करने लगेंगे। ख़ुशी से मुँह से निकला जै हनुमान जी। फिर क्या था, मन ही मन मैं हनुमान चालीसा का जाप करने लगा। को नहिं जानत है जग में कपि, संकट मोचन नाम तिहारो…ऊफ! ये क्या किया मैंने। अति उत्साह में चालीसा की जगह संकटमोचन हनुमानाष्टक की पंक्तियाँ पढ़ने लगा। तुरंत माफ़ी माँगी हनुमान जी से और कहा—बाबा गलती से ‘भैंस की पूँछ फाड़ दी’। पढ़ना कुछ और था बोल कुछ और गया। पर दोनों है तो आपका ही। थोड़ा इधर का उधर हो गया। आपको तो मालूम ही है अभी-अभी पिछले महीने आपकी जयंती के दिन मैंने जमकर आपके नारे लगाए थे, गला अब तक बझा है। आपने अपने इतने सारे भक्तों को एक झटके में माफ़ कर दिया, मुझे भी कर ही देंगे। मेरे हाथ में न तो तलवार है न ही डंडा। मेरी तो बस ज़ुबान फिसली है। मैंने मान लिया, भगवान माफ़ कर देंगे और नहीं करेंगे तो पुलिस किस दिन काम आएगी। अस्सी फ़ीसदी वाले हैं। कोई मज़ाक़ थोड़े न है।

मुझे लगा, इवेंट मैनेजमेंट के दौर में एक मुद्दे पर इतने देर क्यों टिकना। भगवान से मैंने मुँह फेरा तो ध्यान आया, कहीं ऐसा तो नहीं कि डौंडियाखेड़ा गाँव (उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के का गाँव) की तरह यहाँ भी सोने की लंका मिलने का सपना आया हो मालिक हो। पर हैरानी इसी बात की है कि मालिक कहीं नहीं दिख रहा है। मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। मालिक कहीं दिख जाए तो उससे बात करूँ। तभी मुझे किसी की आवाज़ आई। कुत्ते के पट्टे में कुछ यंत्र लगा है, उससे आवाज़ आ रही है। ओह!! यह तो मालिक की आवाज़ लग रही है क्योंकि कुत्ता वही वही कर रहा है जो मालिक कह रहा है। कितना समझदार कुत्ता है। एकदम सिखाया पढ़ाया। मैं समझ गया, यह तो पूरी तरह स्क्रिप्टेड फिल्म की तरह चल रहा है। मालिक के इशारे पर कुत्ते की कारगुज़ारी। मैंने सोचा, यहाँ और समय ज़ाया करना बेवक़ूफ़ी है। मैं भी भाग निकला मध्यम वर्ग के शरीफ़ नागरिक की तरह। क्यों सुबह की सैर का मज़ा एक कुत्ते के चक्कर में बर्बाद करें।

बात आई गई हो गई। शाम को घर वापस लौटते समय मैंने देखा—राजपथ के उस इलाक़े को नोट एंट्री ज़ोन बना दिया गया है और लिखा है—अदालत के अगले आदेश तक प्रवेश वर्जित है। मुझे अपने पर अफ़सोस हुआ। मैं इतिहास पुरुष बनते-बनते रह गया। और तो और लानत यह है कि दिन की इतनी बड़ी ख़बर कैसे मिस कर दी मैंने। जब घड़ी पर नज़र गई तो लगा, चलो अभी तो समय है। देश के तमाम बड़े पत्रकार चीख-चीखकर सच तो बता ही रहे होंगे। सारी बातें उनसे पता चल ही जाएँगी। टीवी खोला तो देखा, देश के हर बड़े पत्रकार महंगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और सांप्रदायिक झगड़े से अभी-अभी मुक्त भारत की चर्चा कर रहे हैं और देश की प्रमुख पार्टियों के नेता श्रीलंका को लोकतंत्र की दुहाई की सीख दे रहे हैं। मेरी आँखों में तो अब भी वो बोर्ड गड़ रहा था—देश ख़ुद रहा है, रुकावट के लिए खेद है…।


 
 
 

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