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एक नंबर का दोनंबरी


(तस्वीर @Dheeraj Sarthak)


ज़िंदगी में एक नंबर बनने की और रहने की चाहत किसे नहीं होती है। वाक़ई गर्व की बात होती है। हिन्दी के एक उपन्यास को दुनिया के सामने एक नंबर बनने की मौक़ा क्या मिला, सारे दोनंबरी(जो ख़ुद को एक नंबर कहते हैं) इधर-उधर देखने लगे। और तो और जो हिन्दी साहित्य में लंबे समय से लाठी चलाते रहे और मौक़ा पाकर कुर्सी को चाट-चाटकर शीतलता प्रदान कर रहे हैं वो भी नहीं बोल रहे हैं भाई। ऐसे लोगों पर लानत मत भेजिए। तरस खाइए। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सम्मान अरुंधती राय(गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स )को भी मिला है, इसलिए मुखारविंद से लफ़्ज़ नहीं फूटते।


लानत से मुझे बचपन का एक क़िस्सा याद आया। हमारे स्कूल में गणित और विज्ञान के एक सम्मानित सर थे।उनका नाम मैं जानबूझकर यहाँ नहीं ले रहा हूँ, अगर नाम ले लूँगा तो लोग साम्प्रदायिक रंग दे देंगे। वो अपने एक बदमाश छात्र की जब भी पिटाई करते थे तो कान ऐंठने के साथ-साथ एक कहानी कहते थे। घूरन की कहानी। सर, पिटने वाले छात्र और घूरन में इतनी समानताएँ ढूँढ देते थे कि पूछिए मत। लगता, अमुक छात्र नहीं बल्कि घूरन ही पिट रहा है। फिर सर घूरन का चरित्र चित्रण करने लगते। घूरन, निहायत ही बेहया, बात-बात में झूठ बोलने वाला, ख़ुद को बहुत समझदार समझने वाला(पर था नहीं), चालाक, काम निकालने वाला, घर की चीज़ों तक को बेच देने वाला(यहाँ सरकारी चीज़ों की बात नहीं हो रही है), बात-बात पर दूसरों की खिल्ली उड़ाने वाला, ज़बरदस्त अभिनयकर्त्ता, कपड़ों का शौक़ीन, सामने वाला बेशक पसंद न कर रहा हो फिर भी लिपट जाने वाला, तड़ाक से हाथ मिला लेने वाला…जैसे-जैसे घूरन की खूबियाँ बताते जाते, छात्र के कान को सर्किल में घुमाने की प्रक्रिया जारी रहती। पर इन सबसे बड़ी ख़ासियत थी घूरन की, चोरी करने की और बाद में ढिठाई की। दूसरे की बातों को अपनी बनाकर बोलना, दूसरे के घर से ज़रूर सामान उठा लेना और जब कोई पूछे तो ख़ुद का बता देना…और तो और स्कूल के टीचर्स की भी चीज़ें चुरा लेता और अपना कहकर छात्रों में वाहवाही बटोरता। जो छात्र उसकी वाहवाही करते, वो छात्र कम और उसके भक्त ज़्यादा लगते। बदले में घूरन कभी सिंघाड़ा(समोसा) खिला देता या पूड़ी जलेबी की पार्टी करा देता। भक्त खुश होकर हर बार घूरन-घूरन के जयकारा लगाते। खैर, इस बीच हमारे सर, छात्र के लिए एकाध थाप की रसीद भी काट चुके होते। सर का ग़ुस्सा रैलियों(देश या विदेश) में भाड़े पर लाए गए लोगों की तरह धीरे-धीरे बढ़ता जाता। हाँ यह भी बताता चलूँ, घूरन और उसके साथी ख़ुद को क्लास में शेर मानते(मेक इन इंडिया वाले शेर की तरह)। बात-बात में मर मिटने की बात करते। लेकिन जब सर के हत्थे घूरन चढ़ जाता तो उसके भक्त सिर छुपाकर बेंच की नीचे देखने लगते। भक्तों को डर रहता, कहीं सर उनको भी न लपेट लें। हालाँकि समय तो सबका आएगा। लेकिन सर का अभी फ़ोकस एक क्लियर था। घूरन को घेरते समय वो भक्तों की परवाह नहीं कर रहे थे।


इस बार घूरन टाइप इस छात्र की पिटाई का कारण बड़ा दिलचस्प था। घूरन ने भौतिकी विज्ञान में किसी दूसरे स्टूडेंट के प्रोजेक्ट को चोरी से हथिया लिया और उसको ख़ुद का बताकर जमा कर दिया। जब दो स्टूडेंट के प्रोजेक्ट एक समान निकले तो सर ने दोनों से उस प्रोजेक्ट के सिलसिले में सवाल पूछे। जिसका वाक़ई में प्रोजेक्ट था वो सही निकला और घूरन फँस गया। कान को लगातार सर्किल बनाने का चक्कर अब भी जारी था। घूरन का कान बार-बार चक्कर काटने की वजह से लाल हो गया था, मानो ततैया ने काट लिया हो। तभी सर ने हँसते हुए कहा कि सुनो घूरन, जब तुम यह प्रोजेक्ट बना रहे थे तो तुम्हारे घर के ऊपर मेरा ड्रोन उड़ रहा था, मैंने उसी से जाना कि तुमने नक़ल की है। जैसे ही इस पूरे दृश्य के समापन की बारी आई तो सर ने एक ज़ोरदार थप्पड़ घूरन को सौंपते हुए पूछा—और करोगे, दूसरे के काम को अपना काम कहने की हिम्मत? इस पर घूरन ने धीरे से कहा—सर, आदत है क्या करें। घूरन की बात पर क्लास के सारे स्टूडेंट हँसने लगे (भक्तों को छोड़कर, वो नए तर्क गढ़ रहे थे)। लगा, सर थप्पड़ की एक और आख़िरी सौग़ात भी भेंट करेंगे पर छोड़ा दिया और कहा—तुम तो सचमुच घूरन ही निकले, उस कहानी वाले घूरन ने भी पुलिस से पिटते समय आख़िर में यही कहा था—जी, अदतवो छुटतई बाबू…‘वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे’ (राग दरबारी, पृष्ठ चार)


घूरन एक नंबर वाला दोनंबरी है, यह मैं नहीं सर कहते थे।असल में एक नंबर का दोनंबरी होना आमतौर पर आसान नहीं होता। विरले ही पैदा होते थे ऐसे लोग पहले। क्योंकि एक नंबर तो पहले भी सबके लिए गर्व की बात होती थी पर दोनंबरी होना पहले समाज में बहुत बुरा माना जाता था। लोग बातों-बातों में कहते थे—‘अरे वो तो एकदम दोनंबरी है। उसकी बात पर भरोसा मत करना।’ यानी जो भरोसेमंद नहीं है, जो फ़र्ज़ी है, जो सिर्फ़ हाँकता है, जो सिर्फ़ अपनी वाहवाही कराने की तरकीबें सोचता है, जो देखने में कुछ और असलियत में कुछ और है ऐसे लोगों को दोनंबरी कहा जाता था। छात्र घूरन के लिए जब सर दोनंबरी विशेषण का इस्तेमाल करते थे तो लगता था अपने छात्रों को बेहतर करने के लिए सर का यह ब्रह्मास्त्र है।लेकिन घूरन था कि टस से मस नहीं होता।


अफ़सोस, ऐसे शिक्षक कितने बचे हैं मालूम नहीं पर घूरनों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि दोनंबरी इस ज़िद्द में हैं कि वो कब एक नंबर को अपदस्थ कर दें और ख़ुद वहाँ बैठ जाएँ। आप ही बताइए, गणित में यह संभव है क्या? जब गणित में संभव नहीं है तो बाक़ी जगहों पर कैसे संभव हो जाएगा। अब नेहरु सर तो इस देश के पहले प्रधानमंत्री ही रहेंगे न? आज कोई कितना भी लल्लो-चप्पो कर ले, उनसे पहले तो नहीं हो सकता है न। हालाँकि बहुत लोग कहते हैं, यहाँ असंभव कुछ भी नहीं होता। यहाँ तो लोग‘महत्मा’ को अपदस्थ करके किसी ‘याचक’ को उनसे आगे करके एक नंबर का तमग़ा ओढ़ाने के चक्कर में लगातार लगे हैं। क्या पता सफल भी हो जाएँ। जिस क़दर चीज़ें बदल रही हैं या चीज़ों के मायने बदल दिए जा रहे हैं, कुछ भी हो सकता है। जयकारा लगाने वाले छात्रों का आदर्श जब घूरन है तो फिर सोचिए, गणित को बदलने में कितना समय लगेगा। एक तमाशा (आप फ़िल्म भी कह सकते हैं) के भरोसे अगर इतिहास पर सवाल उठने लगे तो समझिए, कुछ भी हो सकता है। इसी तमाशे में एक भक्त कलाकार एक शो में कहते रहते थे—“कुछ भी हो सकता है।” सच में कुछ भी हो सकता है। जहाँ भक्ति है वहाँ बुद्धि नहीं भावनाएँ काम करती हैं और भावनाएँ अकसर आवेग में कुछ करा जाती हैं।


इसलिए सावधान रहिए, सतर्क रहिए और देखते रहिए, कोई दोनंबरी आपको अपदस्थ करने में जुटा तो नहीं है? वक़्त का कुछ नहीं कहा जा सकता।

 
 
 

1 Comment


Mritunjay Kumar
Mritunjay Kumar
May 30, 2022

गजब लिखा है आपने सार्थक जी, कोई दो नंबरी आपको अपदस्थ करने मे तो नही लगा है।

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